कोरोना आहों के बीच खुद के घरों पर मॉब-लिंचिंग की खूनी दस्तक

अब जबकि, कोविड-19 के वायरस के आतंक और आशंकाओं की धुंध छंटने लगी है, धुंध के उस पार की तस्वीरों के रंगों की पुरानी स्याही पुरअसर होने लगी है। और, देश की राष्ट्रीय राजनीति और टीवी चैनल ’सांप्रदायिकता एकम सांप्रदायिकता, सांप्रदायिकता दूनी मॉब-लिंचिंग, सांप्रदायिकता तीया ध्रुवीकरण’ का पट्टी-पहाड़ा पढ़ने लगे हैं। कोविड-19 से निपटने के रणनीतिक घटनाक्रमों के बीच महाराष्ट्र के पालघर में एक भीड़ द्वारा दो संतों और उनके सहयोगियों की हत्या के राजनीतिक कुहराम ने कोरोना के आर्तनाद को ढंक लिया है। इस कुहराम में भाजपा के मुख्य प्रवक्ता संबित पात्रा सहित कई नेता कूद पड़े हैं। शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस की राजनीतिक ढपली भी बजने लगी है। इस मॉब लिंचिंग की क्रोनोलॉजी में राजनीति की गंध भभक रही है।


भारत में राजनीतिक और सामाजिक घटनाओं की उम्र लंबी नहीं होती है। पता ही नहीं चलता कि कब कोरोना जैसी आपदाएं रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा बनकर हाशिए पर खिसक जाती हैं? शायद इसीलिए पालघर के  मॉब लिंचिंग, कोरोना के लॉकडाउन, कोरोना प्रभावित प्रवासी मजदूरों के विप्लव या दिल्ली के निजामुद्दीन मरकज की जानलेवा जमातों की करतूतों से केन्द्र की मोदी सरकार, महाराष्ट्र की उद्धव सरकार या बंगाल की ममता सरकार, किसी को भी फर्क नहीं पड़ता है। भारतीय समाज की सबसे बड़ी खूबसूरती यही है कि परिस्थितियों की बगावत और तूफानों की अदावत के बीच जिंदगी की इबादत की रामधुन हमेशा बेअसर दिखती है। हालात के साथ जुगलबंदी में जिंदगी बहुत जल्दी चाही-अनचाही धुनों पर थिरकने लगती है। आम आदमी के तजुर्बों के इस तर्जुमे की राग-रागिनियों में मुस्कराहटें और उदासी एक साथ थिरकते हैं। रोटी से जुड़ा भूख का नसीब कभी छप्पन भोग से सजी चांदी की थालियों में इठलाता है तो कभी खाली कटोरियों में सिसकते निवाले के आंसुओं में डूब जाता है। बंदिशें कभी खत्म नहीं होती, फिर भी वह अपनी धुन, अपनी मस्ती में जिंदगी को बटोर कर गुनगुनाते हुए फिक्र को धुंए के साथ उड़ाते हुए आगे बढ़ने लगता है। जिंदगी का साथ निबाहने का यह अजीबोगरीब अंदाज और फलसफा अथवा समय के गहरे जख्मों को अनसुना और अनदेखा करके भुला देने का यह जज्बा, हिन्दुस्तान की सियासत को चाहे जो मनमानियां और ज्यादतियां करने का इतना बड़ा ’पैसेज’ देता है कि देश के आगे बढ़ने की राहें गुम होने लगती हैं। पालघर में दो संतों की मॉब लिंचिंग के बाद भीड़ द्वारा हत्याएं और उससे जुड़े कानून की जरूरत एक मर्तबा फिर सुर्खियों में हैं। लेकिन, मोदी सरकार पहले की तरह इसे बार फिर भूल जाएगी, क्योंकि जनता की याददाश्त में भी यह जिंदा नहीं रहेगी।  
यह तो पता नहीं है कि कोरोना त्रासदी की राहें कितनी लंबी और दिशा सूचक होंगी, लेकिन यह तय है कि मॉब लिंचिंग के निदान की तलाश में बीते छह सालों में मोदी सरकार अभी तक गुमशुदा राहों पर ही भटकती नजर आ रही है। इंडिया स्पेंड की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2012 से 2019 तक देश में सामुदायिक घृणा से प्रेरित 128 घटनाएं हुईं हैं। जिनमें 47 लोगों की मौत और 175 लोग गंभीर रूप से घायल हुए थे। ’दी क्विंट’ की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि 2015 के बाद भीड़ द्वारा हत्या के 95 मामले सामने आए हैं। एक सर्वे के मुताबिक मोदी सरकार के आने के बाद मॉब लिंचिंग की घटनाओं में 97 प्रतिशत का इजाफा हुआ है।
सामुदायिक हत्याओं के इस सिलसिले में राजनीतिक लाभ-हानि के हिसाब से कुछ ही घटनाएँ चर्चाओं में आती हैं। पालघर का ताजा घटनाक्रम राजनीतिक नफे-नुकसान की कसौटियों पर खरा सिद्ध हो रहा है। मध्य प्रदेश के बाद महाराष्ट्र की गैर भाजपा सरकार मोदी-शाह के टारगेट पर है। घटनाओं की क्रोनोलॉजी में प्रथमद्दष्टया सामान्य अपराधिक कृत्यों में शुमार मॉब लिंचिग की करतूत में सांप्रदायिकता का रंग दो दिनों बाद घुला है। अब साधु-संत भी इसमें कूद पड़े हैं। घटना की पृष्ठभूमि में बच्चा-चोरी और मानव-अंगों की तस्करी की अफवाहें भी इस मॉब लिंचिंग से जुड़ी हैं। मामले में भाजपा की रणनीति उद्धव ठाकरे के हिन्दुत्व पर सवालिया निशान खड़ा करने वाली है। इसीलिए भाजपा के नामचीन नेताओं ने मोर्चा संभाल लिया है कि कांग्रेस-एनसीपी की बैसाखी पर खड़े उद्धव ठाकरे को कठघरे में खड़ा किया जाए।
सवाल यह है कि सुप्रीम कोर्टे के निर्देशों के बावजूद मोदी सरकार मॉब लिंचिंग के खिलाफ कारगर कानून क्यों नहीं बना पा रही है?  इंडिया स्पेंड के अनुसार 2010 से लेकर 2017 तक मॉब लिंचिंग में मारे गए लोगों में 84 प्रतिशत मुसलमान थे। लिंचिंग के मुद्दे पर कानून बनाने के लिए जुलाई 2018 में गठित कैबिनेट कमेटी की मात्र दो बैठकें हुई है। अमित शाह के गृहमंत्री बनने के बाद इसकी एक भी बैठक नहीं हुई है। मॉब लिंचिंग के अपराधियों के प्रति भाजपा का रूख हमेशा सॉफ्ट रहा है। मॉब लिंचिग को अभी तक सत्ता की धर्मान्धता का सहारा मिलता रहा है, लेकिन साधु-संतों की हत्या के बाद इस पर इसलिए गौर करना जरूरी होगा कि मॉब लिंचिग अब अपने ही दरवाजों पर खूनी दस्तक देने लगा


-लेखक सुबह सवेरे के प्रधान संपादक है


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