'कोरोना-हेट्रेड' का वायरस महामारी पर जीत को हार में न बदल दे...  

सही है कि आने वाले साल-छह महीने बेइंतिहा तकलीफों मे गुजरेंगे और सिर पर मंडराता मौत का खौफ इत्मीनान से जीने नहीं देगा, फिर भी इंसान और कोरोना की इस जंग में इंसानियत का जीतना तय है। कुदरत के ऐसे नापाक हमलों के खिलाफ इंसानो के जीतने का जज्बा इतिहास में हमेशा एक करिश्मे के तौर पर दर्ज होता रहा है। कुदरत के खूनी इरादों के आगे न तो कभी इंसान झुका है और ना ही उसने हार कबूल की है। मौजूदा जंग में भी सियासत की खोटी फितरत के बेचैन करने वाले कारनामे, कोरोना से लड़ने के लिए सरअंजामों की कमी-बेशी और कुदरत की हर तरह के मार के बावजूद इस जीत पर किसी को भी शको-शुबहा नहीं है। पीड़ा और तकलीफ के इस दौर में, जबकि सुरसा की तरह वृहदाकार मानवीय त्रासदी के ज्वालामुखी का प्रकोप दिन-ब-दिन घनीभूत होता जा रहा हैं, जबकि अभी हमें यह भी पता नही है कि दुख-तकलीफ का यह लावा हमें कितना तबाह करेगा, हम जज्बाती तौर पर खुद को अपनी जीत के लिए मुतमइन कर सकते हैं और 'हम होंगे कामयाब' जैसी कविताओं से मिजाज में खुशनुमाई घोल सकते हैं।       लेकिन कोरोना के खिलाफ भविष्य में मिलने वाली कामयाबी की इस कविता का तसव्वुर और तरन्नुम न जाने क्यों डरा रहा है कि हम कोरोना से जीतने के बावजूद एक राष्ट्र के तौर पर कहीं खुद से न हार जाएं ?   कोरोना के खिलाफ लिखी जा रही जीत की इबारत में घुलता-खदबदाता तेजाब दहशतजदा कर रहा है। सवाल जहन को उव्देलित कर रहा है कि (प्रसंग निजामुद्दीन-एपीसोड) कोरोना-वायरस में  सांप्रदायिक-नफरत के कीटाणुओं के केमिकल-रिएक्शन के बाद नफरत का जो नया राजनीतिक-वायरस पैदा हुआ है, उससे कैसे निजात मिल पाएगी?  'कोरोना-हेट्रेड' का यह वायरस नफरत की पुरानी बीमारियों से अलहदा, ज्यादा खतरनाक और जहरीला है।  मानव इतिहास में मौत के तीखे पंजों से मनुष्य को अपनी गिरफ्त मे लेने वाली प्लेग, मलेरिया, खसरा, टाइफाइड बुखार, पेचिश, हैजा, फ्लू जैसी खतरनाक संक्रामक बीमारियों से मनुष्य और विज्ञान इसलिए लड़ सका और जीत सका क्योंकि वह भौतिक रूप से इंसान के शरीर में आकर चुनौती देते थे, लेकिन इंसान और समाज नफरत के  एक ऐसे वायरस से कैसे लड़ेगा और जीत पाएगा, जिसका जहर किसी व्यक्ति के जहन में अदृश्य और निराकार पनपता और पलता रहता है।  संक्रामक बीमारी का प्रकोप एक ही समय  में एक निर्धारित भौगोलिक क्षेत्र में सबके सामने होता है, उसकी ट्रैवल-हिस्ट्री होती है, जिसे आप ट्रेस कर सकते हैं, काबू में ला सकते हैं, लेकिन 'कोरोना-हेट्रेड' जैसे जहनी-वायरस के फलने-फूलने का न कोई समय होता है, न कोई कारण होता है, न कोई भौगोलिक-सीमा होती है और ना ही कोई हिस्ट्री होती है।    नफरत का कोई विज्ञान नहीं होता कि उसके प्रकोप को नापा जा सके अथवा इलाज किया जा सके। नफरत भले ही निराकार होती हो, लेकिन मनोवैज्ञानिक साजिश के तहत इसका इस्तेमाल हो सकता है। इतिहास के पन्नों में लहू के रंगों से लिखी नफरत की कहानियां भरी पड़ी है। इतिहास में ऐसे कई प्रसंग दर्ज हैं, जो इस तथ्य को प्रतिपादित करते हैं कि सरकार को नापसंद नस्लीय, धार्मिक, राजनीतिक और वैचारिक समूहों के खिलाफ अपराध करने के लिए राष्ट्र और उसकी राजनीतिक-व्यवस्था सुनियोजित तरीके से नफरत का कैसे उपयोग करती रही है? देश की भावनात्मक मानसिकता, संवैधानिक संकल्पों और सरोकारों को बजरिए नफरत असीमित और स्थायी नुकसान पहुंचाया जा सकता है। नफरत की बुनियाद पर खड़ी कोई भी राजनीतिक व्यवस्था कभी भी मानव-कल्याण की गतिविधियों मे रूपान्तरित नहीं हो सकती और ना ही कोई राष्ट्र मजबूत और स्वस्थ प्रजातांत्रिक गणतंत्र का रूप धारण कर सकता है।     विडम्बना यह है कि कोरोना से जीतने के बाद देश के माथे पर बदनसीबी और नफरत की लकीरें अभी से आकार लेने लगी है। टीवी चैनलों पर 'माउंटेन-ड्यू' के एक विज्ञापन की टैग-लाइन काफी लोकप्रिय है कि डर के आगे जीत है।' लेकिन देश के एक बड़े तबके ने कोरोना की महामारी को सांप्रदायिकता जामा पहनाने के जो सिलसिला शुरू हुआ है, वह इस विज्ञापन की इस वीरोचित टैग-लाइन को उलट रहा है। निजामुद्दीन एपीसोड के बाद हिन्दू-मुसलमानो के बीच बढ़ते अविश्वास और दुराव में इस बात के स्पष्ट संकेत मिल रहे है कि भारत में कोरोना पर जीत के आगे सामाजिक, सामुदायिक और सांप्रदायिक सदभाव की पराजय हमारी बाट जोह रही है। यह डर निर्मूल नही है कि कहीं हमें कोरोना विजय के आगे नफरत की विष-बेलों के रूप में हार नहीं मिले...


उमेश त्रिवेदी - लेखक सुबह सवेरे के प्रधान संपादक है


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