श्रावण विशेष :सोमनाथ ज्योतिर्लिंग जहा महादेव अपने दर से किसी भी भक्त को खाली नहीं लौटने देते

 सोमनाथ मंदिर को 12 ज्योतिर्लिंगों में पहला स्थान प्राप्त है.इतना ही नहीं, कहते हैं महादेव अपने इस दर पर किसी भी भक्त खाली नहीं लौटने देते हैं.गुजरात के सौराष्ट्र से होकर प्रभास क्षेत्र में कदम रखते ही दूर से ही दिखाई देने लगता है वो ध्वज जो हजारों वर्षों से भगवान सोमनाथ का यशगान करता आ रहा है, जिसे देखकर शिव की शक्ति का, उनकी ख्याति का एहसास होता है. आसमान को स्पर्श करता मंदिर का शिखर देवाधिदेव की महिमा का बखान करता है, जहां अपने भव्य रूप में महादेव भक्तों का कल्याण करते हैं.


एक पौराणिक मान्यता के अनुसार सोमनाथ मंदिर में स्थापित ज्योतिर्लिंग ही द्वादश ज्योतिर्लिंगों में स्थापित सबसे पहला रूद्र ज्योतिर्लिंग है, जहां आकर अपना मन भगवान को अर्पण करने वालों की हर मुराद पूरी होती है. उम्मीदों की खाली झोली लिए श्रद्धालु सुबह से ही भगवान सोमनाथ के दर्शनों के लिए उमड़ने लगते हैं. यहां आने वाले हर श्रद्धालु के मन में य़े अटूट विश्वास होता है कि अब उनकी सारी मुशीबतों का अंत हो जाएगा. कोई अपने पापों के प्रायश्चित के लिए आता है, तो कोई अपने सुहाग की लंबी आयु की मन्नत लेकर सोमनाथ रूप भगवान शिव की आराधना करता है, तो कोई अपने नौनिहाल को भगवान के दरबार में इस उम्मीद के साथ लेकर आता कि भगवान से उसे लंबे और निरोगी जीवन का आशीर्वाद मिल सके. देश दुनिया की सीमा से परे हर रोज हजारों श्रद्दालु यहां पहुंचते हैं.मस्तक पर चंद्रमा को धारण किए देवों के देव महादेव का सबसे पंचामृत स्नान कराया जाता है. स्नान के बाद बारी आती के उनके भव्य और अलौकिक श्रृंगार की. शिवलिंग पर चदंन से ऊं अंकित किया जाता है और फिर बेलपत्र अर्पित किया जाता है. शिव भक्ति में डूबे भक्त अपने आराध्य का यह अलौकिक रूप देखते ही रह जाते हैं. उन्हें इस बात का एहसास होने लगता है कि यह जीवन धन्य हो गया. भगवान सोमनाथ की पूजा के बाद मंदिर के पुजारी भगवान के हर रूप की आराधना करते हैं, जिसे देखना अपने आप में सौभाग्य की बात है. अंत में उस महासागर की आरती उतारी जाती है जो सुबह सबसे पहले उठकर अपनी लहरों से भगवान के चरणों का अभिषेक करता है, लेकिन जाते जाते भक्त भगवान के वाहन नंदी जी से अपनी मन्नतें भगवान तक पहुंचाने की सिफारिश करना नहीं भूलते, क्योंकि भक्तों का मानना है कि उनके आराध्य तक उनकी हर गुहार नंदी जी ही पहुंचाते हैं.



सोमनाथ मंदिर की बनावट और मंदिर की दीवारों पर की गई शिल्पकारी शिव भक्ति का उत्कृष्ठ नमूना है. सोमनाथ मंदिर का इतिहास बताता है कि समय-समय पर मंदिर पर कई आक्रमण हुए तोड़-फोड़ की गयी. मंदिर पर कुल 17 बार आक्रमण हुए और हर बार मंदिर का जीर्णोंद्धार कराया गया, लेकिन मंदिर पर किसी भी कालखंड का कोई प्रभाव देखने को नहीं मिलता. कहते हैं सृष्टि की रचना के समय भी यह शिवलिंग मौजूद था ऋग्वेद में भी इसके महत्व का बखान किया गया है. धर्म ग्रन्थों के अनुसार श्राप से मुक्ति पाने के लिए चंद्रमा ने यहां शिव जी की आराधना की थी इसलिए चंद्रमा यानी सोम के नाम पर ही इस मंदिर का नाम पड़ा सोमनाथ.शिव पुराण के अनुसार प्रचीन काल में राजा दक्ष की 27 कन्याएं थी, जिनका विवाह राजा दक्ष ने चंद्रमा से कर दिया, लेकिन चंद्रमा ने 27 कन्याओं में से केवल एक रोहिणी को ही पत्नी का दर्जा दिया. दक्ष ने दामाद को बहुत समझाने की कोशिश की, लेकिन जब उन्होंने दक्ष की बात नहीं मानी तो उन्होंने चंद्रमा को क्षय रोगी होने का श्राप दे दिया और चंद्रदेव की कांति धूमिल पड़ने लगनी. परेशान होकर चंद्रमा ब्रह्मदेव के पास पहुंचे. चांद यानी सोम की समस्या सुन ब्रह्मा ने उनसे कहा कि उन्हें कुष्ठ रोग से सिर्फ महादेव ही मुक्ति दिला सकते हैं, लेकिन इसके लिए उन्हें सरस्वती के मुहाने पर स्थित अगरब सागर में स्नान कर भगवान शिव की उपासना करनी होगी.


निरोग होने के लिए चंद्रमा ने कठोर तपस्या की, जिससे खुश होकर महादेव ने उन्हें श्राप से मुक्त कर दिया. शिवभक्त चंद्रदेव ने यहां शिव जी का स्वर्ण मंदिर बनवाया और उसमें जो ज्योतिर्लिंग स्थापित हुआ उसका नाम चंद्रमा के स्वामी यानी सोमनाथ पड़ गया. चंद्रमा ने इसी स्थान पर अपनी कांति वापस पायी थी, इसलिए इस क्षेत्र को प्रभास पाटन कहा जाने लगा. यह तीर्थ पितृगणों के श्राद्ध कर्मो के लिए भी प्रसिद्ध है. चैत्र, भाद्र, कार्तिक माह में यहां श्राद्ध करने का विशेष महत्व माना गया है. इन तीन महीनों में यहां श्रद्धालुओं की बडी भीड़ लगती है. इसके अलावा यहां तीन नदियों हिरण, कपिला और सरस्वती का महासंगम होता है. इस त्रिवेणी स्नान का विशेष महत्व है.


इतिहास


सर्वप्रथम एक मंदिर ईसा के पूर्व में अस्तित्व में था जिस जगह पर द्वितीय बार मंदिर का पुनर्निर्माण सातवीं सदी में के मैत्रक राजाओं ने किया। आठवीं सदी में सिन्ध के अरबी गवर्नर जुनायद ने इसे नष्ट करने के लिए अपनी सेना भेजी। गुर्जर प्रतिहार राजा नागभट्ट ने 815 ईस्वी में इसका तीसरी बार पुनर्निर्माण किया। इस मंदिर की महिमा और कीर्ति दूर-दूर तक फैली थी। अरब यात्री अल-बरुनी ने अपने यात्रा वृतान्त में इसका विवरण लिखा जिससे प्रभावित हो महमूद ग़ज़नवी ने सन १०२४ में कुछ ५,००० साथियों के साथ सोमनाथ मंदिर पर हमला किया, उसकी सम्पत्ति लूटी और उसे नष्ट कर दिया। ५०,००० लोग मंदिर के अंदर हाथ जोडकर पूजा अर्चना कर रहे थे, प्रायः सभी कत्ल कर दिये गये।[इसके बाद गुजरात के राजा भीम और मालवा के राजा भोज ने इसका पुनर्निर्माण कराया। सन 1297 में जब दिल्ली सल्तनत ने गुजरात पर क़ब्ज़ा किया तो इसे पाँचवीं बार गिराया गया। मुगल बादशाह औरंगजेब ने इसे पुनः 1706 में गिरा दिया। इस समय जो मंदिर खड़ा है उसे भारत के गृह मन्त्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने बनवाया और पहली दिसंबर 1995 को भारत के राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने इसे राष्ट्र को समर्पित किया।१९४८ में प्रभासतीर्थ, 'प्रभास पाटण' के नाम से जाना जाता था। इसी नाम से इसकी तहसील और नगर पालिका थी। यह जूनागढ़ रियासत का मुख्य नगर था। लेकिन १९४८ के बाद इसकी तहसील, नगर पालिका और तहसील कचहरी का वेरावल में विलय हो गया। मंदिर का बार-बार खंडन और जीर्णोद्धार होता रहा पर शिवलिंग यथावत रहा। लेकिन सन १०२६ में महमूद गजनी ने जो शिवलिंग खंडित किया, वह यही आदि शिवलिंग था। इसके बाद प्रतिष्ठित किए गए शिवलिंग को १३०० में अलाउद्दीन की सेना ने खंडित किया। इसके बाद कई बार मंदिर और शिवलिंग को खंडित किया गया। बताया जाता है आगरा के किले में रखे देवद्वार सोमनाथ मंदिर के हैं। महमूद गजनी सन १०२६ में लूटपाट के दौरान इन द्वारों को अपने साथ ले गया था।सोमनाथ मंदिर के मूल मंदिर स्थल पर मंदिर ट्रस्ट द्वारा निर्मित नवीन मंदिर स्थापित है। राजा कुमार पाल द्वारा इसी स्थान पर अन्तिम मंदिर बनवाया गया था। सौराष्ट्र के मुख्यमन्त्री उच्छंगराय नवलशंकर ढेबर ने १९ अप्रैल १९४० को यहां उत्खनन कराया था।इसके बाद भारत सरकार के पुरातत्व विभाग ने उत्खनन द्वारा प्राप्त ब्रह्मशिला पर शिव का ज्योतिर्लिग स्थापित किया है। सौराष्ट्र के पूर्व राजा दिग्विजय सिंह ने ८ मई १९५० को मंदिर की आधारशिला रखी तथा ११ मई १९५१ को भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ॰ राजेंद्र प्रसाद ने मंदिर में ज्योतिर्लिग स्थापित किया।नवीन सोमनाथ मंदिर १९६२ में पूर्ण निर्मित हो गया। १९७० में जामनगर की राजमाता ने अपने पति की स्मृति में उनके नाम से 'दिग्विजय द्वार' बनवाया। इस द्वार के पास राजमार्ग है और पूर्व गृहमन्त्री सरदार बल्लभ भाई पटेल की प्रतिमा है। सोमनाथ मंदिर निर्माण में पटेल का बड़ा योगदान रहा।





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